जय प्रकाश पाराशर
त्रिभुवनेश्वर शरण सिंह देव यानी टीएस बाबा ने आखिर चुनाव से चार माह पहले डिप्टी सीएम पद स्वीकार कर लिया. निश्चित ही हाईकमान के साथ उनकी कोई गंभीर बात हुई होगी. अन्यथा वह वैराग्य की मुद्रा में आ गए थे. कांग्रेस को भी लगा होगा कि सरगुजा की 24 सीट पर अगर इंजिन बैठ गया तो जहाज आसमान में उड़ाए रखना मुश्किल है. सिंहदेव अगर डी शिवकुमार की तरह रहे होते तो साढ़े चार साल भी पूरी ठसक से गुजारते.
आखिर टीएस बाबा की सहजता-सरलता का उत्स क्या है?
टीएस बाबा के बारे में आमतौर पर लोगों में यही धारणा (परसेप्शन) है कि वह सरगुजा के राजपरिवार से आते हैं. काफी धनी-मानी व्यक्ति हैं. उनके पिता मदनेश्वर शरण सिंह देव मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव रहे. वह अर्जुन सिंह के परम मित्र थे. उनकी मां देवेंद्र कुमारी सिंहदेव स्थापित नेता थीं. उनकी बहन आशा सिंह भी हिमाचल की बड़ी नेता हैं. लिहाजा जो उन्हें नहीं जानते, वे निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि वह किसी बड़े महल में रहते होंगे, जहां बहुत सारे दरबान खड़े होंगे. उन तक पहुंचना मुश्किल काम होगा. छत्तीसगढ़ में समाजवादी आंदोलन भी काफी प्रभावी रहा और समाजवादी लोग राजपरिवारों के खिलाफ आग उगलते आए हैं. राजनीति में भी टीएस सिंह देव की जब भी मुखालिफत की गई तो उन्हें राजपरिवार का सदस्त कहकर नकारात्मक छवि बनाने के प्रयास हुए.
अपनी सहजता और सरलता का राज एक बार टीएस ने खुद बताया. उनका कहना था कि उनके पिता मध्य प्रदेश के बड़े अफसर थे. छत्तीसगढ़ तो उन दिनों मध्य प्रदेश में ही हुआ करता था. लेकिन जब वह अपने पिता के साथ दौरों पर निकलते तो लोग हाथ देकर उनकी गाड़ी को रोकते. आदिवासी उन्हें रोकते. उनके पिता चीफ सेक्रट्री होते हुए भी उन लोगों के पास रुकते, उनकी बातें सुनते और जो भी मदद संभव होती, वह करते थे. इस तरह टीएस देखते कि उनके पिता सबसे कमजोर आदमी को भी कितना महत्व देते. यहीं से टीएस में सरलता के इस गुण ने जन्म लिया. वह सरलता आज भी बरकरार है.
पढ़ने के लिए वह जो किताबें चुनते हैं, वे भी असाधारण होती हैं. जब वह नेता प्रतिपक्ष थे, वह अमेरिका के जाने माने बायोलाजिस्ट सिद्धार्थ मुखर्जी की The Gene: An Intimate History पढ़ रहे थे. मैं हैरान रह गया. मेरे लिए यह कल्पना से परे है कि जमीनी राजनीति में सक्रिय कोई व्यक्ति ऐसे वैज्ञानिक रुझान का संवर्द्धन करना जानता हो.
छत्तीसगढ़ की राजनीति में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव की जुगलबंदी ने कांग्रेस को असाधारण जीत दिलाने में अहम भूमिका अदा की थी, यह एक ऐसा तथ्य है कि भूपेश बघेल का सबसे कट्टर समर्थक भी नकार नहीं सकता. अजित जोगी इन दोनों के मुखर विरोधी थे. दोनों इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि अजित जोगी को कांग्रेस से बाहर निकाले बिना, कांग्रेस को सत्ता में नहीं लाया जा सकता. इसलिए जैसे ही अजित जोगी के बेटे अमित जोगी ने एक बड़ी गलती की, दोनों ने मौका चूका नहीं. जोगी ने एक अलग पार्टी बनाई, जो भाजपा को मिलने वाले 7 प्रतिशत वोट झटक ले गई. कांग्रेस असाधारण जनमत से सत्ता में आ गई.
सरकार बनने के बाद दोनों की जुगलबंदी जैसे 180 डिग्री पर घूम गई थी. सिंहदेव के समर्थक या तो खुले समर्थन से बच रहे थे या अपने आपको विपक्ष की तरह समझने लगे थे. चुनाव के ठीक पहले कुमारी शैलजा के छत्तीसगढ़ आने के बाद कांग्रेस को अहसास हुआ होगा कि धरातल का कुछ हिस्सा खिसका है. उसके लिए बहुत जरूरी है कि असंतोष को रोका जाए. सिंहदेव को भी राजनीतिक वैराग्य से बचाने के प्रयास जरूरी लगे होंगे.
उत्तर तलाशने योग्य सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि उप मुख्यमंत्री बनाना एक प्रतीकात्मक समारोह है या कागजी खानापूरी है या अधिकारों के बंटवारे का समझौता है. यह तय है कि उत्तर के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा.