कांग्रेस की ऊंची दुकान फीके पकवान
संदीप सोनवलकर
दीवाली के समय में जब लोग मिठाई खरीदने निकलते हैं तो ये जरुर ध्यान रखते है कि किसकी मिठाई अच्छी है लेकिन लगता है कि कांग्रेस की बस ऊंची दुकान बची है असल में तो उसके सारे पकवान अब फीके हो गये हैं. लगता है कि कांग्रेस की मिठाई बनाने वाले सारे कारीगर भाग गये हैं और मालिक बनकर बैठा गांधी परिवार अब भी धरोहर के नोस्टाल्जिया में जी रहा है .बिहार चुनाव का सबसे बड़ा नुकसान अगर किसी को हुआ है तो वो कांग्रेस को ही हुआ है. तेजस्वी के महागठबंधन में कांग्रेस सबसे कमजोर कडी साबित हुयी और अब कांग्रेस ने चुनाव ही नहीं अपनी साख गंवा दी है. कांग्रेस अब ऐसा बोझ बन गयी जिसे कोई भी मजबूत दल शायद ही अपने साथ रखना चाहेगा . कम से कम उत्तरप्रदेश के बाद बिहार में कांग्रेस के साथ गठबंधन ने बता दिया जहां विकल्प हो वहां कांग्रेस को छोड देना चाहिये .सबसे बड़ा नुकसान उस कार्यकर्ता और नेता का भी हुआ जो सोच रहा था कि पार्टी में कुछ संभावना
है .
बिहार में पार्टी ने लडकर 70 सीटें मांगी और केवल 19 सीट जीती जबकि पिछली बार 40 में से 27 जीती थी . अब कांग्रेस कहेगी कि राहुल गांधी की कोई गलती नहीं बिहार में तो संगठन ही नहीं था . यानि राहुल की पालकी ढोते रहेंगे . संगठन नहीं है तो बनाना चाहिये था. उत्तरप्रदेश में तो प्रियंका के पास कमान है फिर भी उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गयी. गुजरात में राहुल के खास राजीव सातव के पास कमान है फिर भी सब हार गये. मध्यप्रदेश में कमलनाथ की लीडरशिप के बाद भी दिग्विजय ने पलीता लगा दिया .अब वहां भी कोई संभावना नहीं. तो आखिर कब तक राहुल दूसरों पर ठीकरा फोडते रहेंगें.
इसका सबसे पहला असर अब महाराष्ट्र में देखने मिलेगा . कांग्रेस के कई विधायक पार्टी छोडने तैयार बैठे हैं . बीजेपी भी सरकार बनाने के बजाय गिराने पर जोर देगी ताकि चुनाव होंगे. चुनाव हुये तो एनसीपी और शिवसेना मिल जायेगी लेकिन कांग्रेस को 100 सीट देकर खराब नहीं करेंगी. जाहिर है कांग्रेस सबसे बडे नुकसान में रहेगी . डर तो ये है कि कहीं कांग्रेस का हाल अजीत सिंह और उनके बेटे की तरह न हो जाये जो अब भी खुद को बड़ा नेता मानते हैं.
कांग्रेस को अगली बडी चुनौती बंगाल में है जहां वो लेफ्ट के साथ जा रही है लेकिन इससे फायदे के बजाय नुकसान ही होगा तो दूसरा असम में एआईयूडीएफ के साथ जाकर बीजेपी को पोलराईजेशन का मौका दे रही है . राहुल फिर से अध्यक्ष बनने को तैयार है लेकिन उनकी हालत आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की तरह हो रही है जहां बस किला रहेगा लेकिन उसके बाहर कुछ नहीं .अब भी वक्त है राहुल अपनी वर्किंग स्टाईल पर सोचे और बदलें .सबसे पहले तो हर काम में दखल और कोटरी की राजनीती छोडें. पार्टी में पारदर्शिता लायें और उम्मीदवार चयन का कोई सही मैकेनिजम बनाये .अब मामला आपरेशन का है गोली देकर काम नहीं चलने वाला .