मराठी भाषा को लेकर और हिंदी थोपने को लेकर इन दिनों जमकर विवाद चल रहा है.. एक तरफ ठाकरे बंधु एकजुट हो गये हैं तो दूसरी तरफ बीजेपी और उनके सहयोगी जमकर बयानबाजी कर रहे हैं कुल मिलाकर पूरा मामला राजनीति और बयानबाजी में उलझा हुआ है.. लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा कि मराठी बोलने वाले और महाराष्ट्र में रहने वाले युवाओं के लिए रोजगार और नौकरी के अवसर कैसे खोले जायें बात केवल भाषा तक ही सीमित है इसलिए अब मराठी युवकों के लिए चाकरमानी यानि नौकरी करने वाले वर्ग के तौर पर की जा रही है मालिक या स्वरोजगार के तौर पर नहीं .
एक दिन पहले ही सीए फाइनल का रिजल्ट आया जिसमें टाप करने वाला छात्र मुंबई में राजस्थानी समाज द्वारा विघार्थियों के लिए चलाये जा रहे आरवीजी हास्टल का है..इतना ही इसी हास्टल से बड़ी संख्या में और भी सीए बने हैं इसके साथ ही करीब 77 छात्रों नें सी ए इंटर पास किया है ..ये अकेला हास्टल इस बात का उदाहरण है कि कोई भी समाज यदि सच में चाहे तो कैसे अपने युवाओं का भला कर सकता है .इस हास्टल को चलाने के लिए समाज के लोग पैसा देते हैं और छात्रों को मुफ्त रहने खाने और कोचिंग की फैसेलिटी दी जाती है. यानि इस समाज का सीधा सोचना है कि अगर किसी देश में अपने समाज की छाप छोड़नी है तो उसे व्यापार के लिए तैयार करना होगा . ये सारे सीए आगे जाकर किसी जगह नौकरी करेंगे या अपनी प्रेक्टिस करेंगे ..यही लोग शेयर बाजार से लेकर बैंकिंग और इन्वेंस्टमेंट में दिखाई देते हैं.. मराठी समाज के युवा इनके आफिस में बस एकाउंटेट या आफिस बाय की नौकरी करते हैं. मराठी पर विवाद करने वाले लोग और महाराष्ट्र सरकार ऐसा कोई संस्थान क्यों नहीं बनाती जहां से मराठी युवा पेशेवर बनकर निकलें..
राज्य में कुछ ट्रेनिंग संस्थान बार्टी या अन्य जरुर है और इसी तरह आईएएस प्रिलिम निकालने वालों को कोचिंग सरकार देती है लेकिन इनमे से कितने अफसर बने या इंजीनियर या कुछ और इसका हिसाब शायद ही कभी दिया गया हो ..भाषा विवाद में उलझाने वाले नेता भी यही चाहते है कि युवा रोजगार का सवाल नहीं पूछें उनको तो बस भाषा विवाद में उलझाकर रखा जाये . राज्य में इस समय आर्थिक क्षेत्र में पूरी तरह से गुजराती मारवाड़ी और राजस्थानी समाज का वर्चस्व है ..उनके काबिल होने या काम करने पर कोई आपत्ति हो भी नहीं सकती लेकिन मराठी के ठेकेदार और मराठी भाषिक पालक कभी ये नहीं सोचते कि उनके बेटे भी संपत्ति बनायें केवल बंटवारे की बात न करें..
एक किर्लोस्कर या किसी और के उदाहरण के अलावा राज्य में व्यापार और उघोग तथा आर्थिक क्षेत्र में काम करने वाले मराठी भाषी या मूल मराठी कम ही दिखायी देते हैं. कहते है कोई भी भाषा तभी लोग सीखते हैं यदि उससे व्यापार या आर्थिक व्यव्हार होता है.इन दिनो मुंबई में व्यापार और आर्थिक व्यव्हार की भाषा शेयर बाजार से लेकर कपड़ा मार्केट और बुलियन मार्केट से लेकर रियल इस्टेट तक हर जगह गुजराती और मारवाड़ी ही है इसलिए बहुत से लोग ये सीख लेते हैं.. गुजराती और मारवाड़ी भी मराठी सिर्फ इसलिए सीखते हैं क्योंकि सरकारी दफ्तरों में क्लेरिकल लेवल पर मराठी लोग होते हैं और उनसे काम निकालना हो तो टूटी फूटी ही सही मराठी बोलनी पड़ती है.. इसलिए ये बात जोर देकर कही जा सकती है यदि मराठी का गौरव या सम्मान बनाये रखना है तो उसे काम की यानि रोजगार धंधे की भाषा बनाना होगा ..वो भी केवल किसी पार्टी या सरकार के फरमान से नहीं हो सकता उसके लिए तो रोजगार और धंधे में मराठी भाषियों की जगह बनानी होगी , शुरुआत बेहतरीन कोचिंग संस्थान और हास्टल सुविधाओं से होगी और आर्थिक सहयोग से तभी तो वो धंधे रोजगार में टिक पायेंगे. अभी मराठी युवक शेयर बाजार और आर्थिक संस्थानों के बाहर चाय और वड़ा पाव की दुकान लगाकर ही दिखते है और उनको भी रोजगार करने के लिए कामचलाउ ही सही हिंदी तो बोलनी ही पड़ती है.. हम दक्षिण में देखें तो इसका उलट है वहां बड़े आर्थिक उघोंगों से लेकर फिल्म उघोग तक हर जगह उनकी भाषा वाले लोग ही मिलते हैं इसलिए दक्षिण की भाषा बिना किसी के लादे ही लोग सीखते हैं. मराठी को भी सिखाना और बढ़ाना है तो यही करना होगा.