महाराष्ट्र बनने के बाद से ही राज्य की राजनीति को कंट्रोल करने वाले मराठा वोट बैंक में सेंध लग गयी है और अब मराठा वोटर इतना भ्रम में है कि उसे समझ नहीं आ रहा है कि नेताओं के साथ जाये या अलग से अपना भला सोचे . इसका सीधा फायदा बीजेपी को लोकसभा चुनाव में मिलेगा क्योंकि अब तक मराठा वोट परंपरागत तौर पर कांग्रेस या शरद पवार की एनसीपी के साथ ही रहा है लेकिन अब करीब 28 फीसदी ये वोट कई खानों में बंट गया है.
असल में बीजेपी का हमेशा से ये प्रयोग रहा है कि महाराष्ट्र में मराठों के मजबूत वर्चस्व को तोड़ने के लिए माधव फार्मूला यानि माली धनगर और वंजारी सारे ओबीसी को एक साथ लाया जाये और मराठा बनाम ओबीसी को तेज किया जाये जिससे मराठा अगर एक तरफ जायें तो पूरा ओबीसी बीजेपी के साथ आ जाये .इसका फायदा बीजेपी को 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में मिला भी लेकिन अब बीजेपी उससे एक कदम आगे बढ़ गयी है. राजनीतिक विश्लेषक मानते है कि संघ की सलाह पर बीजेपी ने मराठा वोट बैंक को ही अब कई खानों में बांट दिया है. एकनाथ शिंदे के तौर पर मराठा सीएम बनाकर पहले तो शिवसेना का वोट बैंक तोड़ा फिर कुछ दिन बाद अजित पवार को लेकर शरद पवार के मराठा वोट बैंक में सेंध लगा दी.
इतना ही नहीं दूसरी तरफ जब मराठों ने अपने राजनीतिक वजूद की ताकत दिखाने के लिए मराठा आऱक्षण का आंदोलन शुरु किया तो पहले तो मराठों को कुनबी यानि ओबीसी और गैर कुनबी में बांट दिया . इस आंदोलन को लेकर मनोज जरांगे नाम का एक मराठा युवक बहुत लोकप्रिय हुआ उसके पीछे पूरा समाज खड़ा दिखाई दिया लेकिन सरकार ने उसकी कुछ मांगे मानी कुछ नहीं और आखिर में मराठा आरक्षण का केवल प्रस्ताव विधानसभा में पास कर दिया तो अगले ही दिन मनोज जरांगे को भी शब्दजाल में फंसा कर डिसक्रेडिट कर दिया . मजबूरन मनोज जरांगे को अपना आंदोलन बीच में ही छोड़ना पड़ा . इससे पूरा मराठा समाज निऱाश है .
दूसरी तरफ छगन भुजबल की लीडरशिप में ओबीसी ने बिना कुछ हिंसा के अपना अधिकार बचाये ऱखने के लिए जमकर दवाब बनाया और सरकार को मजबूर किया कि वो मराठों को ओबीसी में शामिल करने के बजाय अलग से आरक्षण दे जबकि पचास प्रतिशत की सीमा के चलते जातिगत आधार पर अलग से ये आरक्षण देना कानूनी तौर पर नहीं टिकेगा . अब ओबीसी को संदेश साफ है कि इतना बड़ा आंदोलन करके भी मराठा समाज को कुछ नहीं मिला.
इस सबसे मराठा नेताओं को अपनी राजनीतिक जमीन खिसकती नजर आ रही है इसलिए वो मजबूरी में ही सही लेकिन किसी भी हालत में बीजेपी के साथ जाने तैयार नही है. उनका वोटर इसके लिए तैयार नहीं लेकिन नेताओं को खुद को बचाना है इसलिए वो बीजेपी के साथ जाकर मोदी लहर में ही जीतना चाहते हैं. कांग्रेस के अशोक चव्हाण जैसे दिग्गज नेता भी इस मोह से नहीं बच पाये और बीजेपी चले गये . और भी करीब 15 मराठा नेता एक एक करके बीजेपी का दामन थाम रहे हैं. उधर शरद पवार की ये आखिरी पारी है सो वो कितना मराठा वोट ले पायेंगे ये तो चुनाव में ही पता चल पायेगा लेकिन उनके ही परिवार में फूट पड़ गयी है . बेटी के खिलाफ ही पवार परिवार की बहू लोकसभा चुनाव लड़ना चाहती है.
महाराष्ट्र के इतिहास पर नजर डालें तो मुगल काल और आदिलशाही में यही हुआ था मराठा अपने घर और वतनदारी को बचाने के लिए अलग अलग खेमें में बंटे हुए थे और बाहरी राज कर रहे थे तब सोलहवी सदी के अंत में मराठा छत्रपति शिवाजी महाराज ने मराठों के मतभेद खत्म कर एक साथ किया और स्वराज्य की बात की लेकिन अब इतिहास फिर से खुद को दोहरा रहा है. मराठा अब तक सत्ता पर हावी रहे हैं .एक या दो बार को छोड़कर मराठा ही मुखयमंत्री बनता है और राज्य की सहकारी चीनी मिलों से लेकर शिक्षण संस्थानों तक पर उनका ही राज रहा है लेकिन अब ये पकड़ छूट रही है . अगर मराठों की राजनीतिक ताकत कम हुयी तो इसका खामियाजा पूरे समाज पर होगा .
-संदीप सोनवलकर