मोनिका त्रिवेदी
लेखिका ताकत्सी इंटरनेशनल स्कूल, सिक्किम की हिन्दी अध्यापिका हैं
हिंदी को केवल पखवाड़ा और दिवस के रूप में न रखें सीमित
हिंदी दिवस – 14 सितंबर यह वह दिन है जब संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया था। हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा या हिंदी मास के रूप में इसे मनाने का यह महत्वपूर्ण अवसर है। कैसी विडंबना है कि जो भाषा संविधान द्वारा स्वीकृत है, जो देश के राजकीय कार्यों और न्यायालयों में प्रयुक्त होती है, जो शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच संवाद की भाषा है और जो राष्ट्रीय नेताओं और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर व्यवहार की भाषा है, उसे कुछ दिनों, सप्ताह या महीनों तक सीमित कर दिया जाता है। आजादी प्राप्ति के साथ ही हिंदी को राजभाषा बनाने की माँग देश के हर कोने से उठने लगी थी। परिणामस्वरूप, स्वतंत्र भारत की संविधान सभा में 12 सितंबर 1949 से राजभाषा संबंधी चर्चा शुरू हुई और 14 सितंबर को गोपाल स्वामी अय्यंगर द्वारा प्रस्तुत राजभाषा प्रस्ताव को सभा के 324 सदस्यों में से 312 सदस्यों ने समर्थन दिया, जिसके बाद हिंदी को संघ की राजभाषा और देवनागरी लिपि के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार करने के कई महत्वपूर्ण कारण थे। वास्तव में, हिंदी का विस्तार भारत की अन्य भाषाओं की तुलना में काफी व्यापक रहा है। यही वजह है कि गुलाम भारत को आजादी के लिए प्रेरित करने और एकजुट करने में हिंदी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। हमारे देश में भाषाई चेतना हमेशा से ही मुक्ति चेतना के अंग के रूप में विकसित होती रही है। ‘भारत माता’ और ‘वंदे मातरम्’ दोनों ही बंगाल की देन हैं। भारत के आधुनिक नवजागरण के अग्रदूत राजा राम मोहन राय को अखिल भारतीय भाषा की तलाश थी, जो विशाल राष्ट्र के लिए उपयुक्त हो। इसी कारण उन्होंने 1826 में कोलकाता से ‘बंगदूत’ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला, जिसमें हिंदी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद भी अपने प्रवचनों में हिंदी का प्रयोग करते थे। लेकिन राष्ट्रभाषा की यह चेतना सबसे पहले ब्रह्म समाज के प्रखर नेता केशवचंद्र सेन में स्पष्ट रूप से प्रकट हुई। उन्होंने ही स्वामी दयानंद सरस्वती, जो स्वयं गुजरात से थे, को ‘सत्यार्थ प्रकाश’ संस्कृत में न लिखकर जनभाषा हिंदी में लिखने की सलाह दी। स्वामी दयानंद ने देश-विदेश में हिंदी का प्रचार किया और हिंदी माध्यम के आर्य विद्यालयों की स्थापना कर राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रथम चरण पूरा किया।
कांग्रेस की स्थापना (1885) के बाद भारतीय चिंतन में आकार ले चुकी स्वतंत्र राष्ट्र और राष्ट्रभाषा हिंदी की अवधारणा को मूर्त रूप दिया गया। लोकमान्य तिलक हिंदी को उसी रूप में भारत की राष्ट्रभाषा मानते थे, जैसे उन्होंने स्वतंत्रता को हमारा जन्मसिद्ध अधिकार बताया था। गांधीजी के लिए हिंदी-सेवा देश की स्वतंत्र आत्मा के साक्षात्कार की साधना थी। आजाद हिंद फौज ने भी अपने कौमी तराने के लिए हिंदी को ही चुना। हिंदी का विकास वास्तव में भारत के पुनर्जागरण का इतिहास है। इसकी वाणी ने कुलीनता के द्वार पर दस्तक दी। दमन, शोषण और उपेक्षा की घाटियों और वीरानों से इसे गुजरना पड़ा, पर हर कठिनाई ने इसे नई ऊर्जा दी और यह ‘बहता नीर’ बनती गई। इस जनगंगा के तट पर देशभर के संतों ने साहित्य साधना की, समाज सुधारकों ने अपनी योजनाएँ बनाई, और स्वतंत्रता सेनानियों ने इसे ससम्मान अपनाया। यह खुसरो-जायसी, रहीम-रसखान, कबीर-रैदास और तुलसी-सूर की भाषा है। इसे कभी राजाश्रय नहीं मिला, यह तो जन-जन के मन में समाई हुई है। संविधान की स्वीकृति के बाद हिंदी का भी वही हाल हुआ। वह षड्यंत्रों और राजनीतिक चालों का शिकार बनी। राज की मूल में सत्ता है, और जहाँ सत्ता है, वहाँ चालें खेली जाती हैं।
हिंदी अंग्रेजी के कुचक्र में उलझी हुई है, और उसका संघर्ष भी हिंदी से अलग नहीं रहा है। हमें इससे सीख लेनी चाहिए। इंग्लैंड की अत्यंत प्राचीन भाषा और आज के विश्व की सर्वाधिक समृद्ध भाषाओं में से एक अंग्रेजी का सितारा भी 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अस्त हो गया था, जब इंग्लैंड के तत्कालीन शासक हेराल्ड को पराजित कर नार्मन्स नायक ड्यूक ऑफ विलियम्स ने इंग्लैंड पर अधिकार कर लिया। नार्मन्स की भाषा फ्रेंच का प्रभुत्व इंग्लैंड पर छा गया। शासन, शिक्षा और इंग्लैंड के अभिजात्य वर्ग की भाषा फ्रेंच हो गई। स्वयं को शिक्षित कहलाने वाले लोग फ्रेंच का ही प्रयोग करने लगे; अंग्रेजी जानते हुए भी, अंग्रेजी बोलना अपनी शान के खिलाफ समझा जाता था, जैसे आज भारत का प्रबुद्ध वर्ग हिंदी बोलने को समझता है।
अंग्रेज़ी केवल अशिक्षितों और मजदूरों की भाषा बनकर रह गई। लेकिन 1337-1453 तक चले इंग्लैंड और फ्रांस के बीच युद्ध के कारण फ्रेंच जाति, भाषा और संस्कृति के प्रति विद्रोह की भावना पनपने लगी और अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ने लगा। धीरे-धीरे न्यायालयों और शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेज़ी को पुनः प्रवेश मिला। ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों के प्रकाशन में सबसे बड़ी समस्या शब्द-संपदा की कमी थी। कहा जाता है कि प्रशासनिक शब्दावली में अंग्रेज़ों के पास केवल दो शब्द थे – “किंग” और “क्वीन”। बाकी के जैसे “गवर्नमेंट”, “काउंसिल”, “पार्लियामेंट”, “क्राउन”, “काउंट” आदि अनेक शब्द फ्रेंच से आयातित थे। यही हाल कानून, कला, साहित्य, न्यायालय आदि शब्दावली के साथ भी था। विदेशी भाषा के शब्दों को अपनाने में अपनी भाषा की शुद्धता का भी प्रश्न था, परंतु 1775 में जॉनसन द्वारा प्रकाशित “ए डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश लैंग्वेज” में उन सभी शब्दों को सम्मिलित कर लिया गया, जो अंग्रेज़ी में प्रयोग किए जा सकते थे, और उन पर अंग्रेज़ी की मुहर लगा दी।
भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता की समस्या दूर होते ही बाकी सभी समस्याएं स्वतः समाप्त हो गईं। कहा जाता है कि जानसन के उस शब्दकोश में अंग्रेज़ी के केवल 15% शब्द ही मूल रूप से अंग्रेज़ी थे। हिंदी के साथ भी यही समस्या हो रही है। कई बार अंग्रेजी के शब्दों और अभिव्यक्तियों का हिंदी में अनुवाद करते समय सटीकता की कमी हो जाती है और शब्द हास्यास्पद भी बन जाते हैं । अंग्रेज़ी के जैसे “Good Morning”, “Good afternoon”, “Good evening”, और “Good night” के लिए हिंदी में “शुभ प्रभात, शुभ अपराह्न”, “शुभ संध्या”, और “शुभ रात्रि” जैसे शब्दों को उपयोग किया जाता है, लेकिन ये अनुवाद बहुत औपचारिक और कभी-कभी कृत्रिम लगते हैं। हिंदी में “नमस्ते”, “नमस्कार” या “प्रणाम” जैसे पारंपरिक अभिवादनों का प्रयोग आमतौर पर अधिक स्वाभाविक और उपयुक्त होता है। कुछ शब्दों का अनुवाद ऐसे प्रतीत होता है जैसे शब्द गढ़ने की कसरत की गई हो। ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों के लिए भी हम अपनी भाषा की शब्द-संपदा के व्यवहारीकरण का इंतजार कर रहे हैं।
शासक तथा अभिजात्य वर्ग की हिंदी के प्रति उपेक्षा हिंदी के विकास में सबसे बड़ी बाधा रही है। इस तरह संविधान की स्वीकृति के बावजूद हिंदी भारत की राजभाषा बनी, कहना संदेहास्पद है; पर इतना निश्चित कहा जा सकता है कि हिंदी देश की राष्ट्रभाषा है। देश के किसी भी कोने में जाएं, विचार-विमर्श के लिए आपको हिंदी की स्नेहिल छांव में ही आना पड़ेगा। देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं के संपर्क में आने और अपनाने के कारण हिंदी आज फल-फूल रही है, लेकिन इसका और भी विकास होना आवश्यक है।
लोग हिंदी को बोल-चाल में अपना रहे हैं, पर दिल से अभी भी पूरी तरह से नहीं अपना रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यह समझ आ गई है कि किसी ब्रांड को अखिल भारतीय बाजार देने के लिए हिंदी को अपनाना अनिवार्य है। प्रिंट मीडिया ने इसे राष्ट्रीयता दी, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे वैश्विक बना दिया। हिंदी आजकल विभिन्न रूपों में मौजूद है। हर भाषा के चैनलों में हिंदी का मिश्रण हो रहा हैं। यहाँ तक कि हिंदी में भी हिंग्लिश शब्दों का प्रयोग हो रहा हैं। मानकीकरण की बाद में देखी जाएगी, फिलहाल तो ऐसा ही चलेगा। हिंदी भाषा सबसे आसान, इसे अपनाना ही है हमारी शान। नई शिक्षा नीति में मातृभाषा के लिए जो स्थान निर्धारित की गयी है वो और भी महत्वपूर्ण बनकर उभरे ताकि हिंदी को उसका सम्मान हिंदीभाषियों के बीच वापस से पनप सकें।