भारी पड़ सकता है किसानों का गुस्सा
पिछले बारह दिन से दिल्ली की सीमाओं पर किसान जमे हुए है और सरकार की तरफ से बातचीत का दिखावा किया जा रहा है लेकिन सबसे बड़ा संकट हो सकता है अगर किसानों को पूरे भरोसे में नहीं लिया गया . असल में सरकार में दो तरह की धारायें चल रही है एक तरफ राजनीतिक तो दूसरी तरफ प्रशासनिक . राजनीतिक का प्रतिनिधित्व तो नरेंद्र तोमर कर रहे हैं वहीं पीयूष गोयल प्रशासनिक और उघोग जगत के लिए फायदा देख रहे हैं . इन सबके बीच सरकार की छवि किसान विरोधी और उघोग के प्रति नरम रुख बनने वाली हो रही है .
कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने करीब पांच साल पहले सूट बूट की सरकार का जो नारा उछाला था उसे किसानो ने अब सरकार के ऊपर चस्पा कर दिया है जाहिर है अगर अब भी नहीं चेते तो हो सकता है कि अण्णा आंदोलन के बाद जो गुस्सा पनपा था वही फिर से आम लोगों के मन में घर कर सकता है . लोग वैसे भी पहले से ही कोविड के कारण मंदी और बेरोजगारी के कारण परेशान है ऊपर से यदि लोगों को लगा कि सरकार उनकी रोटी से खिलवाड़ कर रही है तो मुश्किलों बढ़ सकती है .
मोदी सरकार वही गलती ना करे जो कांग्रेस सरकार ने की थी कि कमरों में बंद रहे और जनता की आवाज नहीं सुनी. इस बार मोदी सरकार की मुश्किल ये भी है कि तमाम गोदी मीडिया कहलाने वाले चैनल सरकार को सच बता ही नहीं रहे बल्कि मुददे से भटकाकर कभी टुकडे गैंग तो कभी खालिस्तान का नाम देने की असफल कोशिश कर चुके हैं .सोशल मीडिया पर भी टीम भाजपा सच को आने नहीं दे रही . लेकिन जमीनी हालात कुछ और है .
असल में किसानों को इतना तो समझ में आ गया है कि इन कानून के लागू होने से उनको मिलने वाली एमएसपी खत्म हो सकती है और निजी कंपनियां उनकी जमीन छीन सकती है .ऐसे में किसान अब कुछ सुनने तैयार नहीं .ये सरकार के लिए विश्वास का संकट है अगर अब भी नहीं चेते तो खतरे की घंटी सुनाई देने लगी है .