~ संदीप सोनवलकर, वरिष्ठ पत्रकार
महाराष्ट्र के चुनाव में इस बार दलित मतदाता चुप है और सब उसकी तरफ देख रहे हैं लेकिन वो किसके साथ जायेगा इस पर कई सवाल है . हरियाणा चुनाव के बाद ये कहा जाने लगा है कि लोकसभा चुनाव में साथ देने वाला दलित इस बार खिसक गया और बीजेपी के साथ गया .लेकिन यही सब महाराष्ट्र में होगा ये कहना अभी जल्दबाजी है .
असल में लोकसभा चुनाव में महाविकास आघाड़ी के साथ दलित मुस्लिम और मराठा की तिकड़ी ने कमाल दिखाया और उसने तीस सीटें जीत ली जबकि मोदी लहर और 400 पार के दावे के बावजूद भी भाजपा की सीटें सबसे कम हो गयी.इसके बाद से चिंता बढ़ गयी कहा जाने लगा कि भाजपा को दलित वोटों पर काम करना होगा . एकनाथ शिंदे की सरकार ने इस बारे में बहुत सी घोषणायें भी की लेकिन कहते है कि महाराष्ट्र का दलित सामाजित तौर पर चेतना से भरा है इसलिए वो राजनीतिक ही फैसला लेगा . राज्य में दलित समाज के लिए आरक्षित 33 सीट है 2019 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी और शिवसेना का इन सीटों पर प्रदर्शन खासा नहीं रहा . बीजेपी ने 9 और तब की शिवसेना ने 5 सीट हासिल की थी जबकि कांग्रेस और एनसीपी को सात और छह सीट क्रमश मिली थी . लोकसभा चुनाव के बाद ये गणित और उलझ गया है. राज्य में दलित समाज की संख्या 12 से 13 प्रतिशत मानी जाती है जिसमें से करीब तीस फीसदी अब बौदध है जबकि बाकी मातंग,महार , ढोर, ककैयया शैव , लिंगायत दलित है .
मोमबत्ती और अगरबत्ती का फर्क
राज्य में कहते है कि जो बौदध बन गये वो तो मोमबत्ती का इस्तेमाल करते है पूजा के लिए उनको जय भीम भी कहा जाता है जबकि जो दलित हिंदू ही रहे वो पूजा के लिए अगरबत्ती का ही इस्तेमाल करते हैं. वो हिंदू पूजा पदधति ही मानते है इसलिए बीजेपी को लगता है कि उनको हिंदू बनाकर मनाया जा सकता है. लेकिन असल में दोनों ही बाबा साहेब अंबेडकर के अनुनायी है और संविधान के साथ आरक्षण के सवाल पर बीजेपी के खिलाफ हो जाते हैं. पिछले चुनाव में संविधान बचाओँ का मुददा चला था इसलिए बीजेपी ने राहुल गांधी के विदेश में दिये बयान को मुददा बनाया और कहा कि राहुल आरक्षण खत्म करना चाहते हैं जबकि उन्होने ऐसा कहा नहीं था .राहुल ने कहा था कि अगर सब समान हो जाये ही आरक्षण को हटाया जा सकता है फिलहाल सीएसडीएस का सर्वे बताता है दलित अभी चुप है उसमें कुछ बंटवारा हो सकता है. लेकिन ये दावा बीजेपी कर रही है जमीन पर हकीकत सामने आना बाकी है.
दलित बीजेपी के साथ क्यों नहीं
इस साल संघ के 125 साल पूरे हो रहे हैं .संघ के कई दिगगज कहते रहे है कि दलितों को साथ लेना चाहिये लेकिन ये आरोप भी लगता है कि संघ में दलित नहीं जाते क्योंकि संघ को प्रमुख तौर पर चितपावन ब्राहमण ही चलाते है.इसकी एक पृष्ठभूमी है .
असल में इसका मूल कारण भीमा कोरेगांव है . एक जनवरी 1818 को अँग्रेजों ने महारों के साथ मिलकर पुणे के पेशवा साम्राज्य को उखाड़ फेंका . इसकी मूल वजह दलितों पर अत्याचार था .पेशवा काल में ब्राहमणों ने दलितों पर कई अत्याचार किये . दलितों को गले में एक मटकी बाधनी होती थी ताकि वो कहीं भी थूक न सकें और उनकी कमर में एक झाड़ू बंधी होती थी जिससे रास्ता साफ हो सके .इसके अलावा अपमान और बलात्कार जैसी घटनायें रोज होतीथी . अंग्रेजों ने इसका फायदा उठाया और महारों की रेंजिमेंट बनाकर पुणे पर हमला कर दिया . पेशवा राज खत्म हो गया तब से महार रेजिंमेंट अब तक कायम है .बाबा साहेब अँबेडकर के पिता इसी महार रेंजिमेंट में थे और अंबेडकर ने ही भीमा कोरेगांव स्मारक बनाकर वहां यात्रा शुरु करायी . चार साल पहिले जब वहां एक संघ समर्थक संभाजी भिड़े के कहने पर दलितों पर हमला किया गया तो पूरे राज्य में इसका असर हुआ .चुनाव में इसका फायदा अँबेडकर के नाती प्रकाश अंबेडकर की वंचित बहुजन आघाडी को मिला और बीजेपी ने मत विभाजन का फायदा लिया .लेकिन जल्द ही प्रकाश अँबेडकर की कलई खुल गयी कि वो तो बीजेपी को फायदा दे रहे हैं तो दलितों ने उनका साथ छोड़ दिया.
मराठा बनाम दलित
हरियाणा में जाट बनाम दलित होने के बाद कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र में भी ऐसा ही होगा जहां मराठा महाविकास आघाड़ी से साथ जायेगा तो दलित टूट जायेगा लेकिन ये सच नहीं है . राज्य में फिलहाल मराठा शासक वर्ग की तरह नहीं बल्कि याचक की तरह ओबीसी का आरक्षण मांग रहा है . संविधान बचाओ के नाम पर दलित अब भी महाविकास आघाड़ी के साथ है ऐसे में महायुति को दलितों के वोट में सेंध लगाना कठिन है. अब भी प्रकाश अंबेडकर ने एमआईएम के साथ मिलकर मोर्चा बनाया है लेकिन दलित और मुस्लिम दोनों का उनके साथ जाना दिख नहीं रहा . वो केवल एक या दो प्रतिशत तक ही सिमट जायेंगे .
लाड़ली बहना का असर
दलित समाजा में बड़ी संख्या में महिलाओं नें लाड़की यानी लाड़ली बहना के मान पर 15 सौ रुपये महीना और चार महीने के कुल 6 हजार लिये हैं इस वर्ग में जरुर पैसे के कारण सरकार के प्रति झुकाव दिख रहा है . कुछ मत यहां से टूट सकता है लेकिन राज्य में दलित महिलायें भी समाज और आरक्षण के सवाल पर जागरुक है इसलिए वो पैसे लेकर भी वोट शिंदे सरकार को ही देंगी ये कहना जल्दबाजी होगा. अभी की स्थिति में दलित मुस्लिम मराठा का गठजोड़ आघाड़ी के साथ ही दिख रहा है . अगर एससी आरक्षित 33 सीट में से आघाड़ी को बढत मिलती है तो चुनाव पर इसका असर दिखाई जरुर देगा .