ये अजीब रवायतों का दौर है जरा फासले से मिला करो .. कानपुर आईआईटी को मशहूर शायर फैज अहमद फैज की शायरी भी नागवार गुजरने लगी है .नागरिकता कानून का विरोध करते हुए कानपुर आईआईटी के छात्रों ने मशहूर शायर फैज अहमद फैज की नज्म ‘हम देखेंगे’ को गाया. अब मुशिकल ये है कि फैज साहब बंटवारे के बाद पाकिस्तानी हो गये तो उनकी शायरी भी कैसे चलेगी. फैज ने तो ये भी लिखा कि बोल कि लब आजाद हैं तेरे .. तो क्या इसको भी बैन कर
दें .
इस हिसाब से तो अल्लामा इकबाल का लिखा सारे जहां अच्छा हिंदोस्ता हमारा पर भी बैन हो जानी चाहिये . सारे जहां से अच्छा इस गीत को प्रसिद्ध शायर मुहम्मद इक़बाल ने १९०५ में लिखा था और सबसे पहले सरकारी कालेज, लाहौर में पढ़कर सुनाया था। यह इक़बाल की रचना बंग-ए-दारा में शामिल है। उस समय इक़बाल लाहौर के सरकारी कालेज में व्याख्याता थे। यहां तक कि इंकलाब जिंदाबाद का नारा भी उर्दू से आया है . अरे भाई कम से कम शायरी और साहित्य को तो मुल्कों में मत बांटों .
पंछी नदिया पवन के झोंके कोई सरहद ना इसे रोके .अगर हम सचमुच कला को भी बांटने लगे तो लगता है कि गुलाम अली और मेंहदी हसन को भी सुनना मुशिकल हो जायेगा . फिर बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी क्योकि तब तो दिलीप कुमार पाकिस्तान से आये थे और आडवाणी जी भी .नूरजहां भी पाकिस्तान चली गयीं और सहादत हसन मंटो भी तो क्या सबको बैन कर देंगे . वो भी आईआईटी जैसी जगह पर जब इस तरह की बात होती है तो लगता है कि हम सचमुच आदिम युग की तरफ पहुंचकर ही मानेंगे .
इसेआईआईटी के फैकेल्टी डॉक्टर वासी शर्मा ने इस वीडियो के साथ इसकी लिखित शिकायत डायरेक्टर से की है. आईआईटी प्रशासन शुरू से इस शिकायत को चुप्पी साध रहा था, आज कई दिनों के बाद आईआईटी डायरेक्टर इस मामले में सफाई देते हुए बोले की मामले की जांच हो रही है. आईआईटी प्रशासन ने इसकी जांच के लिए डिप्टी डायरेक्टर मणीन्द्र अग्रवाल के नेतृत्व में एक टीम नियुक्त की है. पूरे मामले की जांच कर रही है. जांच रिपोर्ट आने के बाद दोषियों पर कड़ी कार्रवाही की जाएगी.
पाकिस्तान के मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ का जन्म 13 फरवरी, 1911 में पंजाब के नरोवल जिले में हुआ फैज़ शायर होने के साथ-साथ पत्रकार भी थे. भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद फैज पाकिस्तान में रह गए. अपनी शायरी के जरिए फैज़ ने पाकिस्तान की हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठानी शुरू कर दी. फैज़ की कलम की धार उस समय और बगावती हो गई जब 1977 में जिया-उल-हक़ ने फैज़ के दोस्त जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्ता पलट कर दिया और 3 साल बाद जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दे दी तब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की कलम से निकली नज़्म ‘हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’.
ये है उनकी वह नज्म जिस पर विवाद हो गया है:
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो नाज़िर भी है मंज़र भी
उठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी खल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे