सहादत हसन मंटो की कहानी पढी थी खोल दो ..विभाजन के हाहाकार के बाद पर लिखी . उसका शीर्षक बढा प्रभावी थी खोल दो . कुछ लोगों को आज के संदर्भ में ये भले अश्लील लग सकता है लेकिन है बढा मौजूं. साठ दिन से ज्यादा के लाकडाउन के बाद सरकार भी कह रही है खोल दो .
दोनों में तुलना क्या .यही कि तब भी एक किसी की अस्मत लुटी थी और अब भी .. बिना सोचे समझे लाकडाउन कर दिया गया तब भारत में मामले 100 भी नहीं थे . कही मजदूर का खाना छीन लिया गया और रोजगार भी .भूखो मरने लगा तो घर भी नहीं जाने दिया .जब वो पैदल ,साईकल या रिक्शे से निकलने लगे तो बहुत से लोगों को विभाजन का दौर याद आ गया जब हजारों लोग भारत और पाकिस्तान से इसी तरह खुद को बचाने के लिए भागे थे .सरकार तब भी नाकाम थी और अब भी .
अब भारत में कोरोना से मरने वालों की आधिकारिक संखया पांच हजार और मरीजों की संख्या 1 लाख 80 हजार के ऊपर हो गयी है तो सब खोल दो का नारा लग रहा है . हद तो ये कि सब राज्य सरकारें आंकडों की बाजीगरी कर रही है .नंबर कम करने के लिए पहले तो डिस्चार्ज के नियम बदल दिये गये कहा गया कि अब पंद्रह दिन नहीं बस सात दिन ही मरीज को रखना होगा और निगेटिव रिपोर्ट का इंतजार किये बिना ही छोडने लगे . फिर कहा कि अब तो जब तक हालत खराब ना हो अस्पताल ना आये. घर पर ही रहें और कई किस्से बताये जाने लगे कि बिना किसी दवा के ही घर पर आराम से ठीक हो सकते हैं. इसकी कोई वैग्यानिक पुष्टि भी नहीं हुयी है लेकिन राज्य सरकार ने बाकायदा विग्यापन तक बना डाले . अरे अगर इतना ही सब आसान था तो फिर क्यों सब बंद रखा और लोगों को जीते जी मार दिया .
असल में सरकार को समझ आ गया कि लाकडाउन से कुछ मिला नहीं तो खोल दिया . अपनी नाकामी पर कुछ नहीं कह रहे .ऊपर से कह रहे है कि मरने वालो का आंकडा दुनिया से कम है यानि सब कुछ भगवान भरोसे और आत्मनिर्भर है . आजादी के सततर साल बाद भी हम इंसान को भोजन और मरीज को अस्पताल नहीं दे पा रहे है और दुनिया की सबसे तेज इकानामी बनने का दावा करते हैं. अब तो बस उम्मीद यही कि किसी तरह जल्द से जल्द कोई दवा आ जाये जो हम घर बैठकर ही खा लें वरना आज तेरी तो कल मेरी बारी है .